बिहार के मोतिहारी में 1978 में जन्मे शिवम कुमार श्रीवास्तव स्कूल में टॉपर थे। 17 साल की उम्र में उनकी दुनिया उजड़ गई। लेबर हेरेडिटरी ऑप्टिक न्यूरोपैथी (एलएचओएन) नाम की एक दुर्लभ आनुवंशिक बीमारी ने उनकी आंखों की रोशनी छीन ली। उनके पिता उन्हें हरसंभव विशेषज्ञ के पास ले गए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 5 साल तक उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी। योग, ध्यान, वैकल्पिक चिकित्सा सब आजमाया, लेकिन 2001 आते-आते उन्हें हकीकत स्वीकार करनी पड़ी। दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहने वाले शिवम कुमार श्रीवास्तव की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है। इतना सब होने के बाद भी शिवम ने 2008 में यूपीएससी परीक्षा पास कर ली। उनकी रैंक अच्छी थी, लेकिन फाइनल लिस्ट में उनका नाम नहीं था। 15 साल की लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार उन्हें संघ लोक सेवा आयोग में नौकरी मिली।
हार नहीं मानी, चुना संघर्ष का रास्ता
शिवम ने हार नहीं मानी बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। जुलाई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को उन्हें नौकरी देने का आदेश दिया। तब तक उनके साथ वाले अफसर 15 साल आगे बढ़ चुके थे। कुछ जॉइंट सेक्रेटरी बन गए थे। लेकिन 46 साल के शिवम ने नौकरी में कदम रखा ही था। शिवम ने कहा कि आदेश 7 महीने पहले आया, लेकिन मैंने अभी तक जश्न नहीं मनाया। रिश्तेदारों को भी नहीं बताया।
जब सरकार ही मारने लगे हक
दिव्यांगजन अधिनियम, 1995 के तहत नेत्रहीन उम्मीदवारों को सिविल सेवा में बराबर मौका मिलना चाहिए था। लेकिन शिवम का हक छीन लिया गया। न्याय में देरी होने से उनके करियर को शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया गया। शिवम कहते हैं कि यह लड़ाई सिर्फ मेरी नहीं थी। आईआईएस में जगह मिलने के बाद भी शिवम सतर्क हैं। सरकारी उदासीनता ने उनके करियर के सुनहरे साल छीन लिए थे, जिसे कोई अदालती फैसला वापस नहीं ला सकता। अब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सहायक निदेशक के रूप में अपनी नई नौकरी में छह महीने बिता चुके शिवम, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में दो साल के इंडक्शन ट्रेनिंग के लिए रोजाना 60 किमी ऑटो रिक्शा से आते-जाते हैं। वे कहते हैं कि मुझे कार सहित अन्य सुविधाएं ट्रेनिंग खत्म होने और पोस्टिंग मिलने के बाद ही मिलेंगी।