कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ भारतीय सेना की वीरता की कई कहानियाँ हैं, लेकिन पाकिस्तानी सेना के एक ऐसे अधिकारी की कहानी भी है, जिसे उसकी अपनी सेना ने मरने के बाद भी अपनाने से इनकार कर दिया था। यह कहानी है पाकिस्तान आर्मी के कैप्टन करनाल शेर खान की, जिसे भारतीय सेना ने बहादुरी का सम्मान दिया, और अब पाकिस्तानी सेना उनके नाम पर ‘घड़ियाली आंसू’ बहा रही है।
दरअसल, 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान कैप्टन शेर खान उन पाकिस्तानी सैनिकों में से एक थे, जिन्होंने खुद को मुजाहिद्दीन बताकर भारतीय सीमा में घुसपैठ की थी। भारतीय सेना के साथ हुई भीषण लड़ाई में शेर खान मारा गया था। जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी अधिकारियों से अपने मारे गए सैनिकों के शव लेने का आग्रह किया, तो पाकिस्तान ने साफ इनकार कर दिया था। उनका दावा था कि ये ‘मुजाहिद्दीन’ हैं और उनसे उनका कोई संबंध नहीं है।
भारतीय सेना ने, अपने मानवीय मूल्यों और सैन्य परंपराओं का पालन करते हुए, कैप्टन शेर खान के शव को पूरे सैन्य सम्मान के साथ दफनाया। उनके शव से मिले दस्तावेजों से उनकी पहचान पाकिस्तानी सेना के अधिकारी के रूप में हुई थी। भारतीय सेना ने उनकी बहादुरी को स्वीकार किया और बाद में उनके बारे में पाकिस्तान को सूचित भी किया।
विडंबना यह है कि जिस कैप्टन शेर खान को पाकिस्तान ने मरने के बाद पहचानने से इनकार कर दिया था, उसी पाकिस्तान ने बाद में उसे मरणोपरांत अपना सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘निशान-ए-हैदर’ से नवाजा। पाकिस्तान की यह हरकत साफ तौर पर ‘घड़ियाली आंसू’ बहाने जैसी है। जिस समय उन्हें अपने सैनिकों की पहचान स्वीकार करनी चाहिए थी, उस समय उन्होंने पीठ फेर ली थी, और अब उन्हें अपनी वीरता के प्रतीक के रूप में पेश करते हैं।
यह घटना दर्शाती है कि कैसे भारतीय सेना ने युद्ध के दौरान भी मानवीय मूल्यों और पेशेवर आचरण को बनाए रखा, जबकि पाकिस्तानी सेना अपने ही सैनिकों को पहचानने से मुकर गई थी। कैप्टन शेर खान की कहानी कारगिल युद्ध के उस स्याह सच को उजागर करती है, जिसे पाकिस्तान हमेशा छिपाना चाहता है। यह उन सभी पाकिस्तानी सैनिकों के प्रति एक क्रूर उपहास भी है, जिन्हें उनके अपने देश ने मरने के बाद भी स्वीकार नहीं किया।