हरियाणा में भाजपा स्पष्ट बहुमत की ओर है। जबकि जो भी ओपिनियन पोल या एक्जिट पोल आए, उनमें कांग्रेस की सरकार बनती दिख रही थी। आज रिजल्ट के दिन जब शुरुआती आंकड़े आए तो लगा कि कांग्रेस 60 से 65 तब सीटें जीत सकती है। लेकिन ये रुझान डाक मतपत्र के थे। जैसे ही ईवीएम खुली तो एक घंटे में ही नतीजे उलट-पुलट गए। भाजपा जहां 50 सीटों तक पहुंचती दिख रही है तो कांग्रेस एक बार फिर 35 सीटों पर सिमटती दिख रही है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि कांग्रेस कहां गच्चा खा गई। क्या उसे लगा कि एंटी इन्कम्बेंसी से उसकी झोली भर जाएगी। लगता है कि इसी चक्कर में कांग्रेस ने उतनी मेहनत नहीं की, जितनी उसे करनी चाहिए थी।
सधी रणनीति और कड़ी मेहनत से जीत लिया मैदान
बहरहाल यह कहानी कछुआ और खरगोश जैसी हो गई, जब खरगोश तेजी से दौड़ा और कुछ देर आराम करने लगा। इसी बीच कछुआ धीरे-धीरे आगे बढक़र रेस जीत गया। कुछ ऐसा ही हरियाणा में हुआ, जब अति आत्मविश्वास से लबरेज कांग्रेस खुद को जीता हुआ मान रही थी। लेकिन भाजपा ने सधी रणनीति और कड़ी मेहनत से चुनाव जीत लिया।
क्या गुटबाजी ले डूबी
कांग्रेस में गुटबाजी जगजाहिर है। एक गुट पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा का है, तो दूसरा गुट रणदीप सिंह सुरजेवाला और कुमारी शैलजा का है। चुनाव से पहले शैलजा और हुड्डा गुट में रस्साकशी देखने को मिली। शैलजा ने स्पष्ट कहा कि 90 प्रतिशत उम्मीदवार हुड्डा गुट के हैं। ऐसे में सुरजेवाला और शैलजा ने प्रचार में वह सक्रियता नहीं दिखाई, जो दिखाना था। चुनाव से पहले शैलजा के भाजपा में शामिल होने की चर्चाओं ने भी कांग्रेस की कलई खोल दी। संभवत: इसी गुटबाजी ने कांग्रेस को रसातल में धकेल दिया तो बीजेपी को संभलने और मैदान मारने का मौका दे दिया। कांग्रेस को लग रहा था कि लोकसभा में 5-5 सीटों पर बराबरी से उसका पलड़ा भारी है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और जनता ने कांग्रेस को नकार दिया।