देश के अलग-अलग स्थान में कुंभ का मेला लगता है और इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। कुंभ मेले का इतिहास करीब 850 साल पुराना है। यह भी माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी लेकिन कथाओं की मानें तो कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के समय से हुई थी। कुंभ मेला 12 साल में एक बार लगता है। इसके पीछे मान्यता यह है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है और वे यहां आते हैं। इसलिए हर 12 वर्ष में एक बार कुंभ का आयोजन होता है। मान्यता तो यह भी है कि स्वर्ग में 144 साल के बाद कुंभ का आयोजन होता है, इसलिए उसी वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का आयोजन होता है।
समुद्र मंथन से जुड़ा है कुंभ मेला
हमारे पुराणों में इस बात का उल्लेख है कि कुंभ मेले की कहानी समुद्र मंथन से जुड़ी है। कहानी यह है कि एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण इंद्र और अन्य देवता कमजोर पड़ गए। ऐसे में राक्षस उन पर हावी हो गए और उन्होंने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया। ऐसे में इंद्र से स्वर्ग का राजपाठ छिन गया और देवता भी निष्कासित हो गए। ऐसे में सब मिलकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उन्हें अपनी पीड़ा बताई। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को राक्षसों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकलने की सलाह दी। जब सभी देवता राक्षसों के साथ वार्तालाप करने पहुंचे तो काफी प्रयासों के दोनों में अमृत मंथन के लिए सहमति बनी। समुद्र मंथन से अमृत निकलते ही इंद्र के पुत्र जयंत कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। राक्षसों ने यह देखा तो अमृत के लिए उसका पीछा किया और बीच रास्ते में रोक कर पकड़ लिया। इसी बीच अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और दानवों में 12 दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा। इस संघर्ष के कारण अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहाबाद (प्रयागराज), उज्जैन और नासिक के स्थान पर गिरा था।
12 साल बाद वापस अपने स्थान पर पहुंचता है कुंभ
मान्यता है कि इन चारों स्थान पर इसीलिए 3 साल बाद कुंभ का मेला लगता है। 12 साल बाद यह मेल अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। यही कारण है कि कुंभ के मेले को इन्हीं चार स्थानों पर मनाया जाता है। बताया जाता है की कुंभ को चार हिस्सों में बांटा गया है। अगर पहला कुंभ हरिद्वार में होता है तो ठीक उसके 3 साल बाद दूसरा कुंभ प्रयागराज में और तीसरा कुंभ 3 साल बाद उज्जैन में और फिर 3 साल बाद चौथा कुंभ नासिक में होता है।