कभी भारत के 10 से अधिक राज्यों में “लाल आतंक” का पर्याय रहे माओवादी संगठन, सीपीआई (माओवादी) का नेटवर्क अब बिखरने की कगार पर है। एक समय भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती माने जाने वाले इस संगठन का नेतृत्व एक-एक कर कमजोर होता गया, जिससे अब यह अपने अंत की ओर बढ़ रहा है। गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक देश से माओवाद के खात्मे की समय सीमा तय की है, और वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह लक्ष्य पूरा होता दिख रहा है। हालांकि, बस्तर जैसे क्षेत्रों में आदिवासियों के पुनर्वास और विकास पर ध्यान देना अभी भी एक चुनौती है।
कैसे बर्बाद हुआ माओवादी नेतृत्व:
- शीर्ष नेताओं का खात्मा और गिरफ्तारी: सुरक्षाबलों की लगातार और प्रभावी कार्रवाई के चलते माओवादी संगठन के कई शीर्ष नेता या तो मारे गए हैं या गिरफ्तार कर लिए गए हैं। सेंट्रल कमेटी (CC) के कई सदस्य और पोलित ब्यूरो (PB) के सदस्य, जो संगठन की रीढ़ थे, अब बहुत कम बचे हैं। हाल ही में संगठन के नंबर एक नेता बसवराजु की मौत ने माओवादी नेतृत्व को गहरा झटका दिया है।
- विचारधारा का घटता आकर्षण: विशेषज्ञों का मानना है कि माओवादी विचारधारा अब नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर पा रही है। जनता की बदलती सोच और ज़रूरतों को समझने में माओवादी असफल रहे, जिससे उनके संगठन से जुड़ने वाले लोगों की संख्या लगातार घटती गई।
- आंतरिक राजनीतिक विफलताएं: संगठन के भीतर की राजनीतिक नाकामियों ने भी माओवादियों को अंदर से कमजोर किया है। अपनी मिलिट्री लाइन को ही जीत का मंत्र मानने वाले माओवादियों ने जब वे अपेक्षाकृत ताकतवर थे, तब संवाद का रास्ता नहीं खोला।
- विकास कार्यों का प्रभाव: सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कों का नेटवर्क बनाने, बैंकिंग सुविधाओं का विकास करने, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाने पर जोर दिया है। इससे आम लोगों का भरोसा लोकतांत्रिक व्यवस्था में बढ़ा है, जिससे माओवादी संगठनों में घबराहट पैदा हुई है और वे लगातार पीछे हट रहे हैं।
- सशस्त्र कैडरों का आत्मसमर्पण/खात्मा: छत्तीसगढ़ और दंडकारण्य जैसे क्षेत्रों में छिपे लगभग 300 सशस्त्र कैडर अब आत्मसमर्पण करने या सुरक्षाबलों द्वारा मारे जाने के दो ही विकल्पों में फंसे हैं। बड़ी संख्या में कथित माओवादियों ने आत्मसमर्पण भी किया है।


