छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में होली के अवसर पर आठवें दिन फागुन मड़ई में ‘गंवर मार’ नृत्य अनुष्ठान का आयोजन किया गया। इस अवसर पर आदिवासियों ने वाद्ययंत्रों के साथ नाचते-गाते उत्सव मनाया। कुछ लोग सिर पर जानवरों के सींग लगाए हुए नृत्य कर रहे थे। दरअसल फागुन मड़ई के सातें दिन ‘गंवर मार’ की रस्म होती है। परंपरा है कि रात्रि के अंतिम पहर में गंवर शिकार का प्रदर्शन किया जाता है। यह शिकार नृत्य ‘गंवर मार’ सबसे लोकप्रिय है। बस्तर में पाए जाने वाले दुर्लभ वन भैंसा (गौर) को स्थानीय बोली में गंवर कहा जाता है।
अनोखी है रस्म
शिकार नृत्यों में ‘गंवर मार’ नृत्य की रस्म सबसे अलग और अनोखी होती है। स्थानीय समरथ परिवार के व्यक्ति गंवर का रूप धारण करते हैं। शिकार का प्रदर्शन माई जी के प्रधान पुजारी करते हैं। माई जी के मंदिर से बांस के टोकरे में कलश स्थापना स्थल एवं पंडाल ले जाने की परंपरा है। सेमर के कंटीली वृक्ष से तेयार पंडा गुड़ी की लकड़ी से नरसिंह देव की चौकोर आकृति तैयार की जाती है। परंपरानुसार इस नरसिंह देव की विशेष आकृति को चार लोग कंधे पर लेकर मेंडका डोबरा की ओर जाते हैं। ग्रामीण हाथ में गमछे को लेकर कोड़े मारते हुए रास्ते में आने वाले व्यक्तियों पर प्रहार करते रहते हैं। आसपास के 12 गांवों के लोग गंवर का पीछा कर हांका लगाने का अभिनय करते हैं। जिया बाबा शिकारी के रूप में बंदूक लिए होते हैं। इधर-उधर भारगने के बाद गंवर छुप जाता है तो ग्रामीण सिरहा को लेकर देवी का आह्वान करते हैं जिससे गंवर का पता चलता है। प्रधान पुजारी बंदूक से प्रतीकात्मक फायर करते हैं। माई जी के मंदिर एवं पंडा गुड़ी में गंवर मार रस्म की प्रक्रिया को दोहराने के साथ ही इस रस्म का समापन हो जाता है।