आज से ठीक 50 साल पहले, 25 जून 1975 को, भारत में एक ऐसा अध्याय लिखा गया था जिसने देश के लोकतांत्रिक इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (Emergency) की घोषणा की थी, जो अगले 21 महीने तक जारी रहा। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला अध्याय माना जाता है, जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था और प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया गया था।
आपातकाल के पीछे की कहानी
आपातकाल की घोषणा के पीछे कई कारण थे, जिनमें राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट और आंतरिक अशांति प्रमुख थे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद देश की अर्थव्यवस्था पर दबाव था। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने जनता में असंतोष पैदा कर दिया था। जयप्रकाश नारायण (JP) के नेतृत्व में “संपूर्ण क्रांति” आंदोलन ने सरकार के खिलाफ जनविरोध को और तेज कर दिया।
इसी दौरान, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। उन पर चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप था। इस फैसले के बाद विपक्ष ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की।
इन सभी परिस्थितियों के बीच, इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक अशांति के आधार पर आपातकाल की घोषणा करने की सिफारिश की। बिना मंत्रिमंडल की मंजूरी के ही राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए।
आपातकाल के दौरान
आपातकाल लागू होते ही बड़े पैमाने पर राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार किया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई, जिससे खबरें नियंत्रित होने लगीं। नागरिकों के मौलिक अधिकार जैसे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आंदोलन की स्वतंत्रता आदि छीन लिए गए। कई कठोर कानून बनाए गए और उनका सख्ती से पालन कराया गया। इस दौरान नसबंदी अभियान जैसे कुछ विवादित कार्यक्रम भी चलाए गए।
आपातकाल का अंत और उसके बाद
आपातकाल 21 मार्च 1977 को समाप्त हुआ। इसके बाद हुए चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा और पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार (जनता पार्टी) केंद्र में सत्ता में आई। आपातकाल ने भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। इसने भारतीय लोकतंत्र की ताकत और कमजोरियों दोनों को उजागर किया और भविष्य के लिए कई महत्वपूर्ण सबक दिए। आज भी, 25 जून का दिन भारतीय इतिहास में एक ऐसे दिन के रूप में याद किया जाता है जब लोकतंत्र को सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था।