जाति जनगणना पर केंद्र की मोदी सरकार की मंज़ूरी के बाद अब कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने बाकी हैं। भले ही इसके बिहार के चुनाव परिणाम पर असर पड़े, लेकिन आगे की राह मुश्किल ही है। जाति जनगणना पर सरकार की मंज़ूरी के बाद अब एक विस्तृत प्रक्रिया शुरू होगी जिसमें आयोग का गठन, जनगणना का संचालन, डेटा का विश्लेषण और उसके आधार पर नीतियों का निर्माण शामिल है। इसके सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही क्षेत्रों में दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। देखना होगा कि भाजपा और कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष इस पर अपनी कौन सी रणनीति पर आगे बढ़ती है।
उठाने होंगे ये बड़े कदम
- आयोग का गठन होगा : सरकार जल्द ही एक आयोग का गठन करेगी। इस आयोग का मुख्य काम जनगणना में शामिल की जाने वाली जातियों और उप-जातियों की सूची को अंतिम रूप देना होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल इस आयोग के स्वरूप और कार्यप्रणाली पर फैसला लेगा।
- जनगणना की प्रक्रिया शुरू होगी : अगली जनगणना जो 2025 में शुरू होने की उम्मीद है और 2026 के अंत तक पूरी हो सकती है, में जाति संबंधी आँकड़े जुटाए जाएँगे। यह आज़ादी के बाद पहली बार होगा जब राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना की जाएगी। जनगणना के लिए मोबाइल ऐप और पोर्टल का इस्तेमाल किया जाएगा।
- डेटा का संग्रह और विश्लेषण होगा : जनगणना कर्मियों द्वारा घर-घर जाकर लोगों से उनकी जाति संबंधी जानकारी एकत्र की जाएगी। इस डेटा को डिजिटल रूप से संग्रहित किया जाएगा। इसके बाद, सरकार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और बिग डेटा एनालिटिक्स जैसी तकनीकों का उपयोग करके इस विशाल डेटा का विश्लेषण करेगी।
- नीति निर्धारण और कार्यान्वयन होगा : जाति जनगणना के आँकड़े सरकार को विभिन्न सामाजिक और आर्थिक नीतियों को बनाने और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करेंगे। इससे पता चलेगा कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं और उनके लिए किन विशेष योजनाओं की आवश्यकता है। आरक्षण नीतियों में बदलाव और संसाधनों का उचित आवंटन भी इन आँकड़ों के आधार पर किया जा सकता है।
- राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव : जाति जनगणना के आँकड़े आने के बाद देश की राजनीति में भी बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल इन आँकड़ों का इस्तेमाल अपनी रणनीतियों को बनाने और मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कर सकते हैं। आरक्षण की सीमा (50%) पर भी बहस तेज़ हो सकती है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जाति जनगणना से जातिगत पहचान और मजबूत हो सकती है, जिससे सामाजिक विभाजन बढ़ सकता है। वहीं, कुछ का यह भी मानना है कि इससे हाशिए पर पड़े समुदायों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी।