क्राइम-थ्रिलर जॉनर में सच्ची घटनाओं पर आधारित कहानियों की लोकप्रियता के बीच, निर्देशक अक्षय शेरे फ़िल्म ‘भागवत चैप्टर वन: राक्षस’ लेकर आए हैं। यह फ़िल्म एक सधी हुई अपराध गाथा देने का वादा करती है, लेकिन धीरे-धीरे यह कुछ समय पहले ओटीटी पर आई वेब सीरीज ‘दहाड़’ की कमज़ोर नक़ल साबित होती है। फ़िल्म को Zee5 पर देखा जा सकता है।
कहानी और प्लॉट:
फ़िल्म की शुरुआत कठोर, लेकिन ईमानदार पुलिस अफसर विश्वास भागवत (अरशद वारसी) से होती है। अतीत के दर्द को अपनी ताक़त बनाकर, भागवत अपराधियों के प्रति निर्मम रवैया रखता है। उसकी सख़्ती के कारण उसका तबादला उत्तर प्रदेश के एक शांत गांव में कर दिया जाता है, जहाँ उसे पूनम मिश्रा (आयशा कडुसकर) की गुमशुदगी का एक साधारण दिखने वाला केस मिलता है।
जांच आगे बढ़ती है और यह गुमशुदगी कई लड़कियों के अचानक गायब होने की एक कड़ी बन जाती है। भागवत एक ऐसे सिलसिलेवार अपराध के जंगल में उतरता है जो वर्षों से पल रहा था। अंततः सुराग उसे एक चालाक और निर्मम अपराधी, जिसे ‘प्रोफेसर’ (जितेंद्र कुमार) कहलवाया जाता है, तक ले जाते हैं। यह अपराधी इंसानियत के नैतिक पतन और वहशीपन का डरावना सच सामने लाता है।
रिव्यू और कमज़ोरियाँ:
कहानी का बीज बेहद मज़बूत है, खासकर सच्ची घटनाओं से प्रेरित होने के कारण। मध्यांतर तक, जांच-पड़ताल का हिस्सा दर्शकों को बांधे रखता है और हर सुराग के साथ रोमांच बना रहता है।
हालांकि, इंटरवल के बाद कहानी की पकड़ ढीली पड़ने लगती है। कथानक में वह कसावट और ताजगी नहीं दिखती, जो एक थ्रिलर को यादगार बनाती है। फ़िल्म के कई मोड़ देखे-सुने से लगते हैं, जिससे रोमांच कम हो जाता है।
निर्देशक अपराधी के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को गहराई से खोलने में चूक गए हैं कि आखिर एक आम इंसान ‘राक्षस’ क्यों बना। क्लाइमैक्स का कोर्टरूम ड्रामा भी कमज़ोर है, जिसमें न तो भावनात्मक तीखापन है और न ही तनाव का आवश्यक स्तर। कहानी का इमोशनल आर्क भी सतही महसूस होता है।
अभिनय का पक्ष:
फ़िल्म की सबसे बड़ी ताक़त इसके मुख्य कलाकार हैं।
- अरशद वारसी: खौफनाक अतीत का बोझ ढोते हुए सख्त, ईमानदार और अंदर से टूटे हुए पुलिस अफसर विश्वास भागवत के किरदार में अरशद वारसी ने ज़बरदस्त जान डाली है। उनका गंभीर और जटिल किरदार सहजता से प्रभावशाली लगता है।
- जितेंद्र कुमार: ‘पंचायत’ के ‘सचिव जी’ के विपरीत, जितेंद्र कुमार एक शातिर और निर्मम ‘प्रोफेसर’ के किरदार में बिल्कुल अलग अवतार में नज़र आते हैं और उनकी परफॉर्मेंस प्रभावशाली है। हालांकि, स्क्रिप्ट में उनके किरदार को पूरी गहराई नहीं मिल पाई है।
- आयशा कडुसकर ने अपने सीमित स्क्रीन टाइम में भावनात्मक आयाम दिया है।
निष्कर्ष: बनारस और रॉबर्ट्सगंज की लोकेशंस कहानी के मूड को स्थापित करने में सफल हैं। मंगेश धाकडे का बैकग्राउंड स्कोर भी कहानी की कुछ कमज़ोरियों को ढकने में मदद करता है। यह फ़िल्म उन दर्शकों के लिए है जो डार्क क्राइम स्टोरीज के शौकीन हैं और अरशद वारसी तथा जितेंद्र कुमार के दमदार अभिनय को देखना चाहते हैं।