बॉलीवुड के ‘जेलर’ : नाटक के पैसों से भरी मुंबई की उड़ान, जयपुर की गलियों से निकल जानें कैसे सिनेमा में छाए
बॉलीवुड में कॉमेडी किरदारों के पर्याय और अपनी अनूठी कॉमिक टाइमिंग से दर्शकों को हंसाने वाले दिग्गज अभिनेता गोवर्धन असरानी अब हमारे बीच नहीं रहे। 84 वर्ष की आयु में, असरानी ने दिवाली के पावन दिन यानी 20 अक्टूबर को दोपहर करीब तीन बजे मुंबई के आरोग्य निधि अस्पताल में अंतिम सांस ली। उनके मैनेजर से मिली जानकारी के अनुसार, वह पिछले 15-20 दिनों से कमजोरी महसूस कर रहे थे और सांस लेने में तकलीफ होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनके निधन की खबर से कुछ घंटे पहले ही, उन्होंने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर पोस्ट कर सभी देशवासियों को दिवाली की शुभकामनाएं दी थीं। उसी दिन, 20 अक्टूबर की रात 8 बजे उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
जयपुर की गलियों से मायानगरी का सफर:
असरानी का जीवन संघर्ष और दृढ़ संकल्प की एक प्रेरणादायक कहानी है। उनका परिवार मिडिल क्लास सिंधी परिवार था, जो भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद राजस्थान के जयपुर में आकर बस गया था। उनके पिता ने जयपुर में पहले साइकिल की दुकान और बाद में कालीन का कारोबार शुरू किया था। पिता चाहते थे कि असरानी भी उनके साथ व्यापार में हाथ बटाएं, लेकिन गोवर्धन असरानी का मन हमेशा से फिल्मों और अभिनय में रमा हुआ था।
जयपुर में ही उन्होंने अपने कलात्मक जीवन की शुरुआत रेडियो आर्टिस्ट के तौर पर की। रेडियो से जुड़ने के बाद, उन्होंने मुंबई जाकर एक्टर बनने का पक्का मन बना लिया। हालांकि, पिता से इजाजत नहीं मिली।
घर से भागकर पहुंचे मुंबई और मिली नई राह:
पिता की इजाजत न मिलने के बावजूद, असरानी का अभिनय का जुनून उन्हें शांत नहीं रहने दिया। उन्होंने जयपुर के रंगमंच से अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत की और कलाभाई ठाकोर से अभिनय की बारीकियां सीखीं। बताया जाता है कि उन्होंने जयपुर में अपने थिएटर दोस्तों के साथ दो सफल नाटक ‘जूलियस-सीजर’ और ‘अब के मोये उबारो’ किए। इन नाटकों से उन्हें जो थोड़ी-बहुत कमाई हुई, उसी को आधार बनाकर असरानी मौका देखकर 1962 में घर से भागकर सपनों की नगरी मुंबई पहुँच गए।
मुंबई पहुंचने के बाद, उनकी मुलाकात उस समय के मशहूर निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी से हुई। मुखर्जी ने असरानी की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें पुणे के प्रतिष्ठित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) में एडमिशन लेने के लिए प्रेरित किया। 1966 में FTII से कोर्स पूरा करने के बाद, असरानी ने अपने अभिनय करियर की पहली फिल्म गुजराती भाषा में की। इसके बाद उन्होंने बॉलीवुड का रुख किया।
उतार-चढ़ाव और ‘शोले’ का अविस्मरणीय किरदार:
बॉलीवुड में सैकड़ों फिल्मों में काम करने के बावजूद, असरानी के करियर में कई उतार-चढ़ाव आए। कई बार ऐसा भी हुआ जब उन्हें मुंबई में काम नहीं मिला। इस संघर्ष के दौर में, उन्होंने वापस पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट जाकर अभिनय सिखाने का काम किया और कुछ समय के लिए जयपुर आकाशवाणी में भी प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव के रूप में काम किया।
हालांकि, 1975 में आई रमेश सिप्पी की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘शोले’ ने उनके करियर को एक नई पहचान दी। इस फिल्म में निभाया गया उनका ‘जेलर’ का किरदार हिंदी सिनेमा के इतिहास में अमर हो गया। इस किरदार की लाइनें, जैसे “हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं”, उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गईं और उन्हें बॉलीवुड के सबसे चहेते कॉमेडियन कैरेक्टर्स में शुमार कर दिया। असरानी ने अपनी प्रतिभा और अनवरत संघर्ष से साबित किया कि एक मिडिल क्लास पृष्ठभूमि का युवा भी अपने सपनों की खातिर संघर्ष कर बॉलीवुड में एक अमिट छाप छोड़ सकता है।