जर्मनी के औद्योगिक समृद्धि वाले देश से निकलकर उत्तराखंड की पहाडिय़ों में बसने वाली साध्वी सरस्वती माई की साधना और त्याग की कहानी हर किसी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। भारत जहाँ योग, तप, और धर्म की गहरी जड़ें हैं, वहां एक जर्मन मूल की साध्वी सरस्वती माई का असाधारण जीवन आध्यात्मिकता की राह दिखा रहा है। सरस्वती माई का जन्म एक सम्पन्न और विकसित देश जर्मनी में हुआ। अपने कुल, धर्म, और देश को छोडक़र सन्यास के मार्ग पर चल पड़ीं। उनके लिए सांसारिक वस्तुओं का संग्रहण अब महत्व नहीं रखता। साधारण जीवन और आत्मिक शांति के खोज में वे उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले की ऊखीमठ तहसील में स्थित कालीशिला नामक शक्तिपीठ में पिछले तीन दशकों से साधनारत हैं।
यह स्थान मदमहेश्वर घाटी के राऊंलेंक से चार और कालीमठ घाटी के व्यूंखी गांव से दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई पर स्थित है, नितांत एकांत में है, जहाँ उन्होंने अपनी साधना और तपस्या का गहरा रिश्ता बना लिया है। सरस्वती माई जब जर्मनी में थीं, तब कालीशिला की ओर खिंचे जाने वाले उन दिव्य संकेतों का जिक्र करती हैं। इस दिव्य सपने ने उन्हें यहाँ आने की प्रेरणा दी और वे जर्मनी से उत्तराखंड आ गईं। कालीशिला धाम में उन्हें असीम शांति मिलती है और उन्होंने इस पवित्र स्थल को अपना नया घर मान लिया है। उन्होंने गढ़वाली और हिंदी भाषा को न केवल सीखा, बल्कि उसमें इतनी महारत हासिल कर ली कि वे उस क्षेत्र के लोगों के साथ सहजता से संवाद कर सकती हैं।
जर्मनी छोडक़र उत्तराखंड की पहाडिय़ों में बसी साध्वी सरस्वती माई, कालीशिला तक की आध्यात्मिक यात्रा
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