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    श्रीराम की अयोध्या के लिए लड़े 76 युद्ध.. अंग्रेजों ने भी नहीं होने दिया विवाद का हल

    भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या ने क्या नहीं देखा। भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास झेलना पड़ा। वनवास से वापस आए राम और सीता का विछोह भी अयोध्या ने देखा। भगवान लक्ष्मण और माता सीता का बलिदान की साक्षी भी अयोध्या नगरी बनी। भगवान राम के स्वधाम गमन के बाद सरयू में आई भीषण बाढ़ से अयोध्या की भव्य विरासत को काफी क्षति पहुंची। तब भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने अयोध्या की विरासत को नए सिरे से सहेजा। उन्होंने अपने कार्यकाल में रामजन्मभूमि पर विशाल मंदिर का निर्माण करवाया। युगों-युगों के सफर में भगवान राम का यह मंदिर और अयोध्या जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गई। तब राजा विक्रमादित्य ने इसका उद्धार किया। 57 ईस्वी पूर्व सम्राट विक्रमादित्य ने श्रावस्ती के बौद्ध राजा को हराकर अयोध्या को उसका पुराना वैभव लौटाया और सभी जमींदोज हो चुके मंदिरों और देवालयों का जीर्णोद्धार करवाय़ा। विक्रमादित्य ने अयोध्या का जीर्णोद्धार कराने के साथ रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया।
    तब ऐसा था अयोध्या का वैभव
    विक्रमादित्य के बनाए मंदिर में कसौटी के 84 स्तंभ थे। बताया जाता है कि मंदिर के आसपास छह सौ एकड़ का विस्तृत मैदान था, जिसमें सुंदर उद्यान और मनोहारी लताकुंज थे। उद्यान के बीच में दो सुंदर पक्के कूप भी बनाए गए थे। मंदिर में नित्य प्रात:काल भैरवी राग में शहनाई का वादन होता था। इतिहासकार बताते हैं कि तब बड़े-बड़े विद्वान भगवान की मंगला आरती के समय पाठ किया करते थे। मंदिर परिसर में भव्य अतिथिशाला और पाठशाला भी थी। इतिहास के पन्नों में यह दर्ज है कि इस मंदिर में एक सर्वोच्च शिखर और सात कलश थे। मंदिर के शिखर की चमक और ऊंचाई का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि मंदिर को 40 किलोमीटर दूर मनकापुर से भी देखा जा सकता था। अगले एपिसोड में देखिए अयोध्या के 500 सालों का उतार-चढ़ाव।
    1528 में मीरबाकी ने मंदिर को तोप से उड़ाकर मस्जिद बनवाई
    1526 में मुगल शासन बाबर दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी से जंग लडऩे भारत आया था। दो साल बाद 1528 में बाबर के सूबेदार मीरबाकी ने अयोध्या में मंदिर को तोप से उड़ाकर मस्जिद बनवाई। बाबर के सम्मान में इसे बाबरी मस्जिद नाम दिया गया। जबकि हिन्दुओं के पौराणिक ग्रंथ रामायण और रामचरित मानस के अनुसार यहां भगवान राम का जन्म हुआ था। 1528 में ही अयोध्या के पास की भीटी रियासत के राजा महताब सिंह, हंसवर रियासत के राजा रणविजय सिंह, रानी जयराज कुंवरि, राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय के नेतृत्व में मंदिर की मुक्ति के लिए सैन्य अभियान छेड़ा गया। हालांकि मुगल सेना को उन्होंने मुंहतोड़ जवाब देकर विचलित जरूर किया लेकिन वे मुकम्मल जीत हासिल नहीं कर पाए। राम मंदिर के लिए लड़े गए युद्धों में एकाध बार ऐसा भी हुआ, जब विवादित स्थल पर मंदिर के दावेदार राजाओं और लड़ाकों ने कुछ समय के लिए कब्जा भी जमाया लेकिन यह स्थाई नहीं रह सका।
    कई योद्धाओं ने दी प्राणों की आहुति
    इतिहासकारों का मानना है कि 1530 से 1556 ई. के बीच हुमायूं एवं शेरशाह के शासनकाल में 10 युद्ध लड़े गए। इन युद्धों का नेतृत्व हंसवर की रानी जयराज कुंवरि और स्वामी महेशानंद ने किया था। रानी स्त्री सेना का और महेशानंद साधु सेना का नेतृत्व किया करते थे। इन युद्धों में रानी और महेशानंद के कई सैनिकों ने अपना बलिदान दिया। 1556 से 1605 ईस्वी के बीच अकबर के शासनकाल में 20 युद्ध हुए। इन युद्धों में अयोध्या के ही संत बलरामाचार्य सेनापति के रूप में लड़ते रहे और उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। बलरामाचारी के बलिदान के बाद आखिरकार मुगल बादशाह अकबर ने बाबरी मस्जिद के सामने चबूतरे पर राममंदिर बनाने की अनुमति दे दी। औरंगजेब के शासनकाल 1658 से 1707 ई. के बीच राममंदिर के लिए 30 बार युद्ध लड़े गए। इन युद्धों का नेतृत्व बाबा वैष्णवदास, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदंबा सिह आदि ने किया था। इन युद्धों में सिखों के दशम गुरु गोविंद सिंह ने निहंगों को भी राममंदिर की मुक्ति के लिए भेजा था और आखिरी युद्ध को छोडकऱ बाकी में हिंदुओं को कामयाबी भी मिली। 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुगल शासन का तो पतन हो गया, लेकिन मंदिर के लिए संघर्ष अनवरत जारी रहा। अवध के नवाबों के समय अयोध्या को कुछ हद तक सांस्कृतिक-धार्मिक स्वायत्तता हासिल हुई। 1847 से 1857 ईस्वी के बीच अवध के आखिरी नवाब रहे वाजिद अली के समय बाबा ऊद्धौदास के नेतृत्व में दो बार युद्ध लड़ा गया।
    अंग्रेजों ने भी नहीं होने दिया विवाद का हल
    जब देश में अंग्रेजों का शासन आया तो अयोध्या-फैजाबाद के स्थानीय मुस्लिमों ने बैठक कर तय कर लिया था कि मुस्लिम मंदिर के लिए बाबरी मस्जिद का दावा छोड़ देंगे। तब अयोध्या विवाद का हल होते दिखा लेकिन अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई। तब ब्रिटिश हुकूमत ने मुहिम के सूत्रधार माने जाने वाले अमीर अली और बाबा रामशरणदास को विवादित स्थल के कुछ ही फासले पर इमली के पेड़ पर फांसी दे दी। इसके बाद हिंदू-मुस्लिमों में आक्रोश दिखा, लेकिन अंगे्रजों की चालबाजी और फूट डालो और शासन करो की नीति ने राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद का हल नहीं होने दिया।

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