उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा नदियों का जलस्तर एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है, जिसका प्रमुख कारण ग्लेशियरों का तेजी से टूटना है। भू-वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि इस स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो भविष्य में नदी किनारे बसे निचले इलाकों में बाढ़ का जोखिम और भी बढ़ जाएगा।
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एचसी नैनवाल के अनुसार, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के ग्लेशियर हर साल 5 से 20 मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। इसके अलावा, इनकी मोटाई भी लगातार कम हो रही है, जिससे हैंगिंग ग्लेशियरों के टूटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। प्रोफेसर नैनवाल ने इस स्थिति के लिए पृथ्वी के तापमान में बदलाव और गैसों के उत्सर्जन को मुख्य वजह बताया है। जंगलों में लगने वाली आग से निकलने वाली गैसें भी ग्लेशियरों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं।
पानी और बिजली उत्पादन पर भी खतरा
ग्लेशियरों के टूटने से न केवल नदियों में पानी और गाद की मात्रा बढ़ेगी, बल्कि इसका सीधा असर जल विद्युत परियोजनाओं पर भी पड़ेगा। गाद के जमा होने से जलाशयों की भंडारण क्षमता कम हो जाएगी, जिससे बिजली उत्पादन में कमी आएगी। इसके साथ ही, समुद्र का जलस्तर भी बढ़ सकता है। प्रोफेसर नैनवाल का मानना है कि इस खतरे को कम करने के लिए गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए एक राष्ट्रव्यापी नीति बनाना अत्यंत आवश्यक है।
भूगोलवेत्ता प्रोफेसर मोहन पंवार के अनुसार, श्रीनगर शहर अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण जोखिम भरे क्षेत्र में है। इसका एक कारण अलकनंदा नदी के ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में कई बड़े ग्लेशियरों का होना है। श्रीनगर तक आते-आते अलकनंदा में 30 से ज्यादा छोटी-बड़ी नदियां मिल जाती हैं, जिससे इसका जलस्तर काफी बढ़ जाता है। इन सभी कारकों से नदियों में गाद की मात्रा भी बढ़ रही है, जिससे बाढ़ और भूस्खलन का खतरा और अधिक बढ़ गया है।